फ़कीरचन्द का परिवार उत्तरप्रदेश के फतेहपुर से
जबलपुर आजीविका के लिए आया था और फिर यहीं का हो कर रह गया। फ़कीरचन्द के पिता का
नाम बकसराम था। इनके तीन पुत्र हजारीलाल, मोतीलाल और
फ़कीरचन्द हुए। एक बहिन थी जिनका नाम परमीबाई था। उन्हें कुछ लोग किस्सी बाई भी
कहते थे। उस्ताद फ़कीरचन्द का जन्म 1839 में हुआ। तीनों भाईयों में वे सबसे होशियार
थे। उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा में इतना ज्ञान अर्जित कर लिया था कि जल्दी ही
उनकी गिनती जबलपुर के योग्य चिकित्सकों में होने लगी थी। बताया जाता है कि
फ़कीरचन्द की प्रसिद्धि सुनकर हैदराबाद की एक बेगम इलाज करवाने जबलपुर आई थीं1
स्वस्थ होने पर उन्होंने अखाड़े के लिए बड़ी धनराशि दी थी। नारायण शीतल प्रसाद
कायस्थ ने ग्रंथ में इसे लिखा है-
मारी
बीमारी की बेगम हैदराबाद की
मान
लाचारी शरण सुकुलजी के आई थीं।
सैकड़न
हकीम,
वैद्य , डाक्टर अनेकन तहां,
वाने
आराम नेक काहू से न पाई थी।।
कीन्हीं
खैरात हूं अनेक भांति बेगम ने
द्रव्य
झाड़ फूंक में नारायण बहु लुटाई थी।
ताहि
थोड़े काल में उस्ताद ने निरोग्य कर
पूर्ण
दया कर ताके देश को पठाई थी।।
नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ अखाड़े के समीप रहने
वाले सेठ मदनमोहन अग्रवाल की दुकान में एक
मुनीम थे। नारायण शीतल प्रसाद शाहजहांपुर के रहने वाले थे। आगरा में पंडित
पन्नालाल से हिसाब-किताब,
रोकड़-बाकी सीख कर जबलपुर जीवकोपार्जन के लिए आ गए थे। कायस्थ
उस्ताद फ़कीरचन्द को बहुत मान सम्मान देते थे और परम स्नेही भी थे। उन्होंने
उस्ताद फ़कीरचन्द के जीवन को सम्पूर्ण घटनाओं का पद्यबद्ध वर्णन ‘फ़कीरचन्द सुयश सागर’ के नाम से किया।
उस्ताद फ़कीरचन्द का एक किस्सा यह भी मशहूर है
कि जब ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की मूर्ति की स्थापना टाउनहॉल के उद्यान में हुई, तब उस्ताद भी गाजे बाजे के साथ वहां पहुंचे और मूर्ति की धूप चंदन से पूजा
अर्चन की। इस दृश्य को देख कर अंग्रेज अफसर तो विस्मित थे ही जबलपुर के लोग भी
अंचभे में थे।
उस्ताद फ़कीरचन्द का 68 वर्ष की आयु में निधन हो
गया। निधन से पूरे जबलपुर शहर में शोक छा गया। सभी वर्ग के लोग श्रद्धांजलि देने
अखाड़े की ओर दौड़ गए। फ़कीरचन्द के निधन के बाद भाई हजारीलाल ने अखाड़े का प्रबंध
व चिकित्सा का कार्य संभाला लेकिन वृद्धावस्था व शिथिलता के कारण वे अधिक समय
तक जीवित नहीं रह सके।
फ़कीरचन्द उस्ताद ने मृत्यु पूर्व एक वसीयतनामा
लिख दिया था। इसमें पांच ट्रस्टियों को अखाड़े की पूरी संपदा की सुरक्षा हेतु
नियुक्त किया गया था। इनमें सेठ मदनमोहन अग्रवाल जबलपुर के बड़े साहूकार व
व्यवसायी सेठ मन्नूलाल के पुत्र थे। सेठ मन्नूलाल ने उत्तर भारत के तीर्थ स्थलों
में इतना दान दिया था कि कुछ दिनों तक इस शहर का नाम सेठ मन्नूलाल का पर्यायवाची
बन गया था। दूसरे ट्रस्टी गुलाबचन्द चौधरी थे। उनके पुत्र रायबहादुर कपूरचन्द
चौधरी ने कोतवाली अस्पताल बनवा कर जनता को प्रदान किया था। बाकी तीन ट्रस्टी मुंशी
लाला उदयकरण,
सवाई सिंघई नत्थूलाल और ठाकुर भूपत कुंवर थे। ट्रस्टियों की सलाह
से पंडित ब्रजलाल अखाड़े के मंदिर की पूजा व्यवस्था देखते थे और छेदीलाल
आयुर्वेदिक चिकित्सा का जिम्मा संभालते थे।
नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ ने उस्ताद के लिए
लिखा था-
यैसो
यशी जीव जाहर जक्त में न कोई भयो
जैसो
उस्ताद के प्रताप को बखान है
जिसने
सहस्त्रन के महारोग नीके किये
दियो
दिन रात जिन दवा द्रव्य दान है
सबको
मान राखनहार सदा ही प्रसन्न चित्त
स्वप्न
में नारायन ना जिनके अभिमान है
जाहर
जहान है कायम निशान है
आयो
विमान कियो सुर्ग को पयान है।
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